आपातकाल नहीं चाहिए तो फिर कुछ बोलते रहना बेहद ज़रूरी है ! - श्रवण गर्ग कुछ पर्यटक स्थलों पर ‘ ईको पाइंट्स ’ होते हैं जैसी कि मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान माण्डू और सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी के बारे में लोगों को जानकारी है।पर्यटक इन स्थानों पर जाते हैं और ईको पाइंट पर गाइड द्वारा उन्हें कुछ ज़ोर से बोलने को कहा जाता है।कई बार लोग झिझक जाते हैं कि वे क्या बोलें ! कई बार ज़ोर से बोल नहीं पाते या फिर जो कुछ भी बोलना चाहते हैं , नहीं बोलते।आसपास खड़े लोग क्या सोचेंगे , ऐसा विचार मन में आता है।जो हिम्मत कर लेते हैं उन्हें बोले जाने वाला शब्द दूर कहीं चट्टान से टकराकर वापस सुनाई देता है।पर जो सुनाई देता है वह बोले जाने वाले शब्द का अंतिम सिरा ही होता है।शब्द अपने आने - जाने की यात्रा में खंडित हो जाता
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क्या इंदिरा गांधी सचमुच में एक क्रूर तानाशाह थीं ?- -श्रवण गर्ग सरकार के बदलते ही ‘आपातकाल’ की पीठ को नंगा करके जिस बहादुरी के साथ उसपर हर साल कोड़े बरसाए जाते हैं ,मुमकिन है आगे चलकर 25 जून को ‘मातम दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने और उस दिन सार्वजनिक अवकाश रखे जाने की माँग भी उठने लगे।ऐसा करके किसी सम्भावित,अघोषित या छद्म आपातकाल को भी चतुराई के साथ छुपाया जा सकेगा।नागरिकों का ध्यान बीते हुए इतिहास की कुछ और निर्मम तारीख़ों जैसे कि 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड या फिर छः दिसम्बर 1992 की ओर आकर्षित नहीं होने दिया जाता है जब बाबरी मस्जिद के ढाँचे को ढहा दिया गया था और उसके बाद से देश में प्रारम्भ हुए साम्प्रदायिक विभाजन का अंतिम बड़ा अध्याय गोधरा कांड के बाद लिखा गया था।आश्चर्य नहीं होगा अगर सत्ता में सरकारों की उपस्थिति के हिसाब से ही सभी तरह के पर्वों और शोक दिवसों का भी विभाजन होने लगे।चारण तो ज़रूरत के मुताबिक़ अपनी धुनें तैयार रखते ही हैं। आज जब आपातकाल को लेकर एक लम्बी अवधि की बरसी मनाई जा रही है और केवल इक्कीस महीनों के काले दिनों को ही बार-बार सस्वर दोहराय