//इस दौरान : मेरी एक नई कविता//


कब निकलेगा देश यात्रा पर अपनी ?


-श्रवण गर्ग 


इससे पहले कि थक जाए यात्री 

निकलना होगा देश को यात्रा पर !

सौंप दिए हैं पैर अपने 

यात्री ने सब के बदले

नहीं पड़ेगा चलना ज़्यादा सबको 

थामने सैलाब आंसुओं के 

बह रहे हैं जो सालों से चुपचाप

सड़कों के दोनों बाजुओं पर !


सदियों में होती है ऐसी एक यात्रा 

आदि शंकराचार्य की माटी से 

बद्री-केदार के मंगल स्वरों की ओर !

दिलाना पड़ता है याद लोगों को 

उनका निर्मल अतीत,निर्मम यातनाएँ 

हो जाता है दिल भी हल्का 

रो लेने से सामने सबके 

फूटने लगतीं हैं कोपलें भी 

ज़मीनों सेकरार दी गईं हैं जो बंजर 

बही-खातों में सरकारों के !


नहीं देखना पड़ेगा दूर तक ज़्यादा 

गिन रहा है यात्री सबके लिए 

सूई के छेद से पीड़ाओं के पहाड़ 

तैरने लगेंगी सामने आँखों के

अतृप्त आत्माएँ तमाम 

चली गईं थीं जो यात्राओं पर अनंत की 

गूंजने लगेगा बुझ चुके कानों में 

उनका आर्तनाद 

सुनाई देंगे बुदबुदाए दुःख भी साफ़ !


बदल सकता है अगर 

एक यात्री का साहस इतना कुछ !

बदली जा सकती है सूरत दुनिया की 

निकल जाए सड़कों पर अगर 

मुल्क एक सौ तीस करोड़ आत्माओं का !

गुज़र रहा है ‘अमृत काल’ भी इस समय 

प्रसव वेदना से हज़ारों यात्राओं की !

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