क्या ऐसी 'हिंसक अराजकताके साथ ही जीना पड़ेगा ?


-श्रवण गर्ग


देश की राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद में बीस जुलाई को एक बेक़सूर पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या परपत्रकारिता के शीर्ष संस्थानों जैसे एडिटर्स गिल्ड ,भारतीय प्रेस परिषद आदि की ओर से किसी औपचारिक भी प्रतिक्रिया का आना अभीबाक़ी है।ये संस्थान और बड़े सम्पादक अभी शायद यही तय कर रहे होंगे कि जो व्यक्ति मारा गयावह वास्तव में भी कोई पत्रकार था यानहीं।यह भी कहा जा रहा है कि वह गुंडों के ख़िलाफ़ अपनी किसी प्रकाशित रिपोर्ट को लेकर तो नहीं मारा गया।उसकी हत्या तो अपनीभांजी के साथ छेड़छाड़ के ख़िलाफ़ की गई पुलिस रिपोर्ट की वजह हुई।ऐसे लोगों को विक्रम जोशी के अपनी छोटी-छोटी बेटियों कीआँखों के सामने मारे जाने या उसके पत्रकार होने या  होने से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ! ये जानते हैं कि दिल्ली और अन्य गाँव-शहरों मेंरोज़ाना ही लोगों को सड़कों पर मारा जाता है और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता।मैं विक्रम जोशी को नहीं जानता।वे ग़ाज़ियाबाद केकिस स्थानीय अख़बार में काम करते थे यह भी पता नहीं।मेरे लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त था कि वे एक बहादुर इंसान रहे होंगे।औरयह भी कि अपनी भांजी के साथ छेड़छाड़ को लेकर पुलिस तक जाने की हिम्मत कोई पत्रकार ही ज़्यादा कर सकता है।आम आदमीपुलिस और गुंडों दोनों से ही कितना डरता है ,सबको जानकारी है।


विक्रम जोशी की हत्या तो देश की राजधानी की नाक के नीचे हुई इसलिए थोड़ी चर्चा में भी  गईपर सुनील तिवारी के मामले में तोशायद इतना भी नहीं हुआ होगा।मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के निवाड़ी ज़िले के गाँव पुतरी खेरा में पत्रकार तिवारी की दबंगों द्वारा हालही में हत्या कर दी गई।सुनील तिवारी ने भी पुलिस अधीक्षक को आवेदन कर उन दबंगों से अपनी सुरक्षा का आग्रह किया थाजिनकेख़िलाफ़ वे लिख रहे थे और और उन्हें धमकियाँ मिल रहीं थीं।कोई सुरक्षा नहीं मिली।तिवारी का वह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरलहै जिसमें वे बता रहे हैं कि उन्हें और उनके परिवार को किस तरह का ख़तरा है।निश्चित ही अब पूरी कोशिश यही साबित करने की होगीकि तिवारी पत्रकार थे ही नहीं।आरोप यह भी है कि तिवारी जिस अख़बार के लिए उसके ग्रामीण संवाददाता के रूप में काम करते थेउसने भी उन्हें अपना प्रतिनिधि मानने से इनकार कर दिया है।आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए।


क्या पत्रकार होना  होना भी पत्रकारिता जगत की वे सत्ताएँ ही तय करेंगी जो मीडिया को संचालित करती हैंजैसा कि अभिनेता के रूपमें पहचान स्थापित करने के लिए फ़िल्म उद्योग में ज़रूरी है ?अगर आप सुशांत सिंह राजपूत हैं तो वे लोग जो बालीवुड की सत्ता चलाते हैंआपको कैसे अभिनेता मान सकते हैं ! ऐसा ही अब मीडिया में भी हो रहा है।पहले नहीं था।ग़ाज़ियाबाद या निवाड़ी या और छोटी जगहपर होने वाली मौतें इसीलिए बिना किसी मुआवज़े के दफ़्न हो जातीं हैं कि मौजूदा व्यवस्था आतंक के नाम पर केवल विकास दुबे जैसेचेहरों को ही पहचानती है।वह भी उस स्थिति में अगर आतंक से प्रभावित होने वालों का सम्बन्ध व्यवस्था से ही हो।


ग़ाज़ियाबाद के विक्रम जोशी या निवाड़ी के सुनील तिवारी को व्यक्तिगत तौर पर जानना ज़रूरी नहीं है।ज़्यादा ज़रूरी उन लोगों कोजानना है जिनके ज़िम्मे उनके जैसे लाखों-करोड़ों के जीवन की सुरक्षा की जवाबदारी है और इनमें बिना चेहरे वाले कई छोटे-छोटे पत्रकारऔर आरटीआई कार्यकर्ता शामिल हैं। वर्ष 2005 से अब तक कोई 68 आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं और छह को आत्महत्याकरनी पड़ी है।इस सिलसिले में ताज़ा मौत 38-वर्षीय पोयपिन्हुँ मजवा की है जो बीस मार्च को मेघालय में हुई है।व्यवस्था के साथ-साथही उस समाज को भी अब जानना ज़रूरी हो गया है जिसके भरोसे संख्या में अब बहुत ही कम बचे इस तरह के लोग अभी भी तराज़ू केभारी पलड़े की तरफ़ बिना देखे हुए अपने काम में ईमानदारी से में लगे हुए हैं और समाज हरेक ऐसी मौत को अपनी ही एक और साँस काउखड़ जाना नहीं मानता।


विक्रम जोशी की हत्या को लेकर मैंने एक ट्वीट किया था उसकी प्रतिक्रिया में सैंकड़ों लोग मेरे द्वारा व्यक्त चिंता के समर्थन में  गए।पर कुछ उनसे अलग भी थे जिनके विचारों का उल्लेख यहाँ इसलिए ज़रूरी है कि देश किस तरह से चलना चाहिए ये ही लोग तय करतेहैं।जैसे :(1)’ सही कह रहे हैं श्रीमानजी ! अधिकांश मीडिया जगत के पास साँसों के अलावा कुछ भी नहीं बचा। कलम तो पहले ही बिकचुकी है ,अब साँसों का भी संकट खड़ा हो गया है ‘, (2)’पिछली सरकार में तो पत्रकारों को जेड प्लस सुरक्षा थी।कोई भी पत्रकार कीहत्या नहीं हुई ,लिस्ट भेजूँ क्या ?’, (3) ‘विक्रम जोशी की हत्या उनके द्वारा पत्रकार की हैसियत से किसी रिपोर्ट के प्रकाशन के कारणनहीं हुई है।’ ऐसे और भी कई ट्वीट।


एक घोषित अपराधी विकास दुबे की पुलिस के हाथों ‘संदेहास्पद’ एंकाउंटर में हुई मौत की जाँच तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहीहै ,पर गुंडों के हाथों सामान्य नागरिकोंपत्रकारों ,आरटीआई कार्यकर्ताओंआदि की आए दिन होने वाली हत्याएँ तो सभी तरह के संदेहोंसे परे हैं।फिर भी अपराधियों को सजा क्यों नहीं मिलती ? क्या हमें इसी तरह की हिंसक अराजकता के बीच जीना पड़ेगा ?




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