राहुल की ‘इमरतियाँ’ बिहार को डरा तो नहीं रही हैं ?
-श्रवण गर्ग
बिहार चुनावों को लेकर विपक्षी महागठबंधन के विभिन्न घटकों के बीच चल रही तनातनी और उसमें कांग्रेस की भूमिका ने उन तमाम लोगों के मन में सवाल खड़े कर दिए हैं जिन्होंने बीजेपी और संघ की नीतियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने भाग्य को राहुल गांधी के नेतृत्व के साथ नत्थी कर रखा है। भय उत्पन्न होने लगा है कि राहुल की लड़ाई के प्रति दिए जा रहे समर्थन को क्या चुनाव-नतीजों की घोषणा तक अस्थायी कर दिया जाना चाहिए ?
मोदी के सत्ता में आने के बाद पिछले ग्यारह सालों के दौरान चले घटनाक्रम, विशेषकर 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद, कांग्रेस कई बार सिद्ध कर चुकी है कि उसने जनता को निराश करने की अपार क्षमताएँ अर्जित कर ली हैं। सीटों के बटवारे को लेकर महागठबंधन के सहयोगी दलों के बीच प्रकट हुआ तनाव कोई अपवाद नहीं बल्कि उसके विफल होने की दिशा में एक और प्रयोग दिखाई पड़ रहा है।
कहना मुश्किल है कि विपक्ष की सफलता का रहस्य मतदान के ठीक पहले अपेक्षित राहुल के किसी विस्फोटक चमत्कार में छुपा हुआ है या इन उम्मीदों में कि प्रशांत किशोर द्वारा खड़े किए गए 240 उम्मीदवार एनडीए के वोट बैंक में निर्णायक सैंध लगा सकते हैं ! ऐसी किसी भी परिस्थिति के नायक तब प्रशांत किशोर माने जाएँगे राहुल गांधी नहीं। राहुल गांधी द्वारा किए जाने वाले ‘हाइड्रोजन बम’ विस्फोट की प्रतीक्षा अभी ख़त्म नहीं हुई है। उसका बिहार में कम और देश-दुनिया में ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है। इसमें यह भी शामिल है कि ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ वाली स्थिति में सफ़ाई क्या दी जाएगी ?
जिस तरह की खबरें बिहार से बाहर निकलकर देश के हिस्सों में पहुँच रही हैं डराती हैं कि विपक्ष की जो लड़ाई संविधान और वोटर अधिकारों की रक्षा को लेकर प्रारंभ हुई थी वह किस तरह देखते ही देखते किसी भी क़ीमत पर सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने के कुर्ता फाड़ संघर्ष में तब्दील हो गई। इसी बीच अपने ही द्वारा खड़े किए गए महत्वाकांक्षी परिदृश्य से राहुल गांधी ने स्वयं को चुपचाप अनुपस्थित भी कर लिया। महागठबंधन का सर्वमान्य नेता इस समय कौन है खबरों को पता नहीं ! राहुल गांधी द्वारा पार्टी के दूसरे हिन्दी-भाषी राज्यों में व्याप्त असंतोष और पराजय के लिए दोषी ठहराए जा चुके सेनापतियों को ही बिहार की आग बुझाने के काम में झोंका गया है।
बिहार चुनावों के ज़रिए राहुल गांधी जो सिद्ध करना चाह रहे थे वह महागठबंधन के घटक दलों की आपसी नाराज़गी के बीच लगभग गुम हो चुका है। जो नज़र आ रहा है वह सिर्फ़ यह है कि बीजेपी ने किसी भी क़ीमत पर बिहार को ख़रीदने के लिये समस्त उपलब्ध संसाधनों और संस्थाओं को झोंक दिया है ! थोड़े शब्दों में बड़ी बात कहना हो तो बिहार विजय के ज़रिए मोदी राहुल गांधी नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति के समक्ष देश पर अपनी पकड़ और जनता के समर्थन का प्रदर्शन करना चाहते हैं ! ऐसा इसलिए कि विधानसभा चुनावों में एनडीए की हार को नीतीश सरकार के ख़िलाफ़ बिहार की जनता का वोट नहीं बल्कि मोदी की हुकूमत के प्रति देश का अविश्वास माना जाएगा।
सत्तारूढ़ दल की सांप्रदायिक और विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने वाले तमाम लोग बिहार में महागठबंधन की विजय की यही मानते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं कि परिणाम उस ‘इंडिया ब्लॉक’ को राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्जीवित करेंगे जिसे बीजेपी के मार्गदर्शन में ध्वस्त करने में प्रमुख भूमिका नीतीश कुमार की रही है। चुनाव के नतीजे उन लाखों-करोड़ों लोगों के मनोबल को मज़बूत या कमज़ोर करने वाले हैं जिन्होंने अपने संवैधानिक अस्तित्व को बिहार से बीजेपी और राजनीति से नीतिश कुमार की विदाई के साथ जोड़ रखा है।
मीडिया अभी तो यही दिखला रहा है कि बिहार में महागठबंधन की लड़ाई अकेले तेजस्वी लड़ रहे हैं और राहुल पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक में ‘घंटेवाला स्वीट्स’ के यहाँ इमरतियाँ तल रहे हैं। देश देखना यह चाहता है कि 14 नवंबर के ऐतिहासिक दिन को राहुल ‘इंडिया ब्लॉक’ के लिये इमरतियों का स्वाद चखने जैसा रख पाते हैं या नहीं ? देश इस बात पर आपा नहीं खोना चाहेगा कि नतीजों की घोषणा के साथ ही राहुल गांधी फिर किसी लंबी छुट्टी पर विदेश रवाना हो गए हैं !
पुनश्च : बिहार में चुनाव लड़ रहे प्रमुख राजनीतिक दलों को अपनी हार के कारणों की समीक्षा बजाय 14 नवंबर को नतीजे प्राप्त होने के बाद करने के कमिटियाँ बनाकर अभी से प्रारंभ कर देना चाहिए ! निश्चित ही निष्कर्ष वैसे ही प्राप्त होंगे जैसे नतीजों की घोषणा के बाद होने वाले होंगे !
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