उत्पीड़न से लड़ाई का ‘असहमति’ के साथ बँटवारा
श्रवण गर्ग
वह अकेली औरत कौन है /जो अपने चेहरे को हथेलियों में भींचे /और सिर को घुटनों पर टिकाए हुए/उस सुनसान चर्च की आख़िरी बेंच के कोने पर बैठी हुई /सुबक-सुबककर रो रही है ?वह औरत कोई और नहीं/हाड़-माँस का वही पुंज है /जो ईसा को उनके ‘पुरुष शिष्यों द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के बाद /उनकी ढाल बनकर अंत तक उनका साथ देती रही /जो उनके पुनरुज्जीवन के समय भी उनके साथ ही उपस्थित हुई थी / और वही औरत आज उन्हीं ‘पुरुष शिष्यों ‘के बीच सर्वथा असुरक्षित है/और यीशु भी अनुपस्थित हैं
औरतों ने औरतों के उत्पीड़न से लड़ाई का आपसी ‘असहमति’ के साथ बँटवारा कर लिया है।सिद्ध हो रहा है कि सारी औरतें एक-दूसरे सेअलग हैं ।पुरुषों के कबीले ध्वस्त हो रहे हैं और औरतों के बन रहे हैं। इन कबीलों में उन औरतों को भी शामिल किया जा रहा है जिन्हें पता नहीं है कि उन्हें अंततः किस औरत के पक्ष में खड़ा होना चाहिए ।औरत को औरतों की भीड़ में बदला जा रहा है ।
केरल के चर्च में अपने ही पादरी द्वारा किए गए शारीरिक अत्याचार की शिकार नन उस औरत से अलग क्यों हो जाती है जो उसी केरल के आठ सौ साल पुराने मंदिर में प्रवेश के लिए दूसरे कबीलों की ढेर सारी औरतों के साथ संघर्ष में जुटी है ?
चर्च की बेंच पर असहाय सी बैठी का औरत का शारीरिक उत्पीड़न मीडिया और एंटर्टेन्मेंट इंडस्ट्री के पादरियों का शिकार बनी औरतों से अलग क्यों हो जाता है ? इस औरत का चेहरा उस ‘’मी-टू’’ आंदोलन के पोस्टरों में भी क्यों शामिल नहीं होता जो महिलाओं के सम्मान के मुद्दे को लेकर इस समय सबसे ज़्यादा उत्तेजित और चर्चा में है ?
देश के एक प्रतिष्ठित पत्रकार का सबरीमाला प्रकरण में कहना है कि जजों को लोगों और उनके देवी-देवताओं के बीच प्रमुख पादरियों/पुजारियों की भूमिका नहीं निभानी चाहिए।पत्रकार से पूछा जाना चाहिए कि क्या चर्च के पादरी द्वारा अपनी ही नन के साथ किए जाने वाले शारीरिक शोषण को धार्मिक स्थल और उससे जुड़ी आस्था का मामला मानकर बर्खास्त कर देना चाहिए या फिर पीडिता को न्याय दिलाने के लिए जजों से पादरियों/पुजारियों की भूमिका निभाने की अपेक्षा भी करनी चाहिए?
केरल के चर्च की नन, सबरीमाला के मंदिर में प्रवेश के लिए संघर्ष करती महिलाएँ और लाखों-करोड़ों की संख्या में ख़रीदी-बिक्री और शारीरिक शोषण का शिकार होती औरतें इसलिए अलग-अलग दिखाई दे रही हैं कि परम्पराओं की आढ़ लेकर निहित स्वार्थों द्वारा उन्हें क़बिलाई भीड़ और भेड़ों में बाँटा जा रहा है।यही कारण है कि नन के शारीरिक शोषण का आरोपी पादरी फ़्रांको मलक्कल जब अपनी गिरफ़्तारी के बाद जमानत लेकर केरल से वापस जालंधर लौटता है तो सैंकड़ों महिलाओं और पुरुषों द्वारा एक नायक की तरह उसका स्वागत किया जाता है।न तो आरोपित पादरी के चेहरे पर कोई अपराध का भाव दिखाई पड़ता है और न ही महिलाओं की उस भीड़ के चेहरे पर कोई शर्म जो अगवानी के लिए पहुँचती है।
कैथोलिक चर्च पर माफ़िया किस तरह से हावी हो रहा है उसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि बलात्कार मामले में पादरी मलक्कल के ख़िलाफ़ गवाही देने वाले एक प्रमुख गवाह फ़ादर कुरियाकोस कट्टूथारा सोमवार को संदिग्ध परिस्थितियों में जालंधर में मृत पाए जाते हैं।कोई आश्चर्य नहीं कि केरल के ही एक निर्दलीय विधायक पी सी जॉर्ज आरोपी पादरी का बचाव करते हुए कहते हैं कि:’’ मेरे पास घटना के एक दिन के बाद के पीड़िता नन के मलक्कल के साथ फ़ोटोग्राफ़्स और वीडियोज हैं जिनमें वह ख़ुश नज़र आ रही है।’’ केरल के विधायक पीड़िता नन को ‘प्रोस्टीटयूट’ क़रार देते हैं और इधर दिल्ली में देश की एक जानी-मानी महिला पत्रकार अपने ट्वीटर अकाउंट पर पूछती हैं कि किस तरह की महिलाएँ होटल के कमरे पर जाती हैं जहाँ कि पुरुष ‘अंडरवीयर’ में उनकी अगवानी करता है ? ‘
23 अप्रैल 1985 को जब सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने पाँच बच्चों की माँ शाहबानो के प्रकरण में सर्वसम्मति से उनके पूर्व पति को निर्वाह-व्यय के समान गुज़ारा राशि देने का आदेश दिया था तो फ़ैसला सुनानेवाले जजों के ख़िलाफ़ तमाम कट्टरपंथी मुसलमान सड़कों पर उतर आए थे।जुलूस निकाले गए और जजों के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक नारे लगाए गए। मुद्दा यह है कि फ़ैसला मुस्लिम महिलाओं के हक़ में था पर वे सड़कों पर फ़ैसले के समर्थन में नहीं उतरीं।
पर सबरीमाला मामले में इसी 28 सितम्बर को जब चार पुरुषों और एक महिला वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने चार-एक के बहुमत से भगवान आयप्पा के मंदिर के दरवाज़ों को सभी उम्र की महिलाओं के लिए खोल दिया तो फ़ैसले के ख़िलाफ़ महिलाओं के समूह केरल और दिल्ली सहित अन्य स्थानों पर उमड़ पड़े।बेंच की एकमात्र महिला जज इन्दु मल्होत्रा ने अलग से ‘असहमति’ का फ़ैसला सुनाया था।उनका कहना था कि :’गहरी धार्मिक भावनाओं वाले मुद्दों में सामान्य तौर पर कोर्ट को दख़ल नहीं देना चाहिए।कौन सी धार्मिक मान्यता अनिवार्य है यह तय करना धार्मिक समुदाय का काम है ,कोर्ट का नहीं।’ पुरुष जजों के बहुमत वाली बेंच के फ़ैसले का विरोध करनेवाली बहुसंख्यक महिलाएँ इन्दु मल्होत्रा की असहमति की टिप्पणी को सबसे ज़्यादा न्यायपूर्ण मानती हैं।सबरीमाला मामले की सुनवाई करने वाली बेंच पर अगर महिला जजों की संख्या पुरुष जजों के बराबर या अधिक होती तो क्या मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बहुमत का फ़ैसला अलग भी हो सकता था ?
महिला अधिकार या उत्पीड़न के मुद्दे पर एक ‘महिला ‘के चरित्र को लेकर ‘दूसरी ‘महिला की आपत्तिजनक टिप्पणी और ‘तीसरी‘ महिला के समूह का निर्दलीय बनकर चुप्पी ओढ़ लेना बताता है कि महिलाएँ किस तरह से देहरी के इस पार, उस पार और ठीक बीच बंटी हुई खड़ी हैं ।औरतों के चेहरे ही अलग-अलग नहीं रहे, उनकी लड़ाइयाँ भी अलग-अलग कर दी गई हैं।(दैनिक भास्कर, ‘रसरंग’ साप्ताहिक परिशिष्ट, 29 अक्टूबर,2018 )
Comments
Post a Comment