नीतीश का ताकतवर बने रहना इस समय ज़्यादा ज़रूरी है ?


-श्रवण गर्ग


नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इस समय एक ज़बरदस्त माहौल है।कहा जा रहा है कि इस बार तो उनकी पार्टी काफ़ी सीटें हारने वाली है और वे चौथी बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएँगे।प्रचारित किया जा रहा है कि ‘सुशासन’ बाबू ने बिहार को अपने राज के पंद्रह सालों में ‘कुशासन’ के अलावा और कुछ नहीं दिया।(हालाँकि भाजपा नेता सुशील मोदी भी इस दौरान एक दशक से ज़्यादा समय तक उनके ही साथ उप-मुख्यमंत्री रहे हैं)।क्या ऐसा तो नहीं है कि मतदाताओंजिनमें कि लाखों की संख्या में वे प्रवासी मज़दूर भी शामिल हैंजो अपार अमानवीय कष्टों को झेलते हुए हाल ही में बिहार में अपने घरों को लौटे हैं, की नाराज़गी की बारूद का मुँह मोदी सरकार की ओर से हटाकर नीतीश की तरफ़ किया जा रहा है ? नीतीश के मुँह पर भाजपा से गठबंधन का मास्क चढ़ा हुआ है और वे इस बारे में कोई सफ़ाई देने की हालत में भी नहीं हैं।


सवाल इस समय सिर्फ़ दो ही हैं : पहला तो यह कि आज अगर बिहार में राजनीतिक परिस्थितियाँ पाँच साल पहले जैसी होतीं और मुक़ाबला जद (यू)-राजद के गठबंधन और भाजपा के बीच ही होता तो चुनावी नतीजे किस प्रकार के हो सकते थे ? दूसरा सवाल यह कि नीतीश को देश में ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-भाजपाई विपक्ष के किसी सम्भावित राजनीतिक गठबंधन के लिहाज़ से क्या कमज़ोर होते देखना ठीक होगा ?और यह भी कि क्या तेजस्वी यादव (उनके परिवार की ज्ञात-अज्ञात प्रतिष्ठा सहितनीतीश के योग्य राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जा सकते हैं ?


पहला सवाल दूसरे के मुक़ाबले इसलिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि मई 2014 में हिंदुत्व की जिस 'विराटलहर पर सवार होकर मोदी पहली बार संसद की चौखट पर धोक देने पहुँचे थेउसके सात महीने बाद पहले दिल्ली के चुनावों और फिर उसके आठ माह बाद 2015 के अंत में हुए बिहार के चुनावों में भाजपा की भारत-विजय की महत्वाकांक्षाएँ ध्वस्त हो गई थीं। इस समय तो हालात पूरी तरह से बेक़ाबू हैंभाजपा या मोदी की कोई लहर भी नहीं है ,मंदिर-निर्माण के भव्य भूमि पूजन के बाद भी। वर्ष 2018 के अंत और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में ग़ैर-भाजपा सरकारों का बनना और हाल के महीनों में महाराष्ट्र का घटनाक्रम भी काफ़ी कुछ साफ़ कर देता है। पिछले चुनाव में जद(यू)-राजद गठबंधन की जीत के बाद शिवसेना ने नीतीश कुमार को ‘महानायक’ बताया था। उस समय तो शिवसेना एनडीए का ही एक हिस्सा थी।


मुद्दा यह भी है कि नीतीश के ख़िलाफ़ नाराज़गी कितनी ‘प्राकृतिक’ है और कितनी ‘मैन्यूफ़्रैक्चर्ड’।और यह भी कि भाजपाई शासन वाले राज्यों के मुक़ाबले बिहार की स्थिति कितनी ख़राब है ? किसी समय मोदी के मुक़ाबले ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के विकल्प माने जाने वाले नीतीश कुमार को हर कोई हारा हुआ क्यों देखना चाहता है ! इस समय तो एनडीए में शामिल कई दल भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं।क्या ऐसा नहीं लगता कि जद(यूकी भाजपा के मुक़ाबले कम सीटों की गिनती या तो नीतीश को मोदी के ख़िलाफ़ ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से  सकने वाली किसी भी चुनौती को समाप्त कर देगी या फिर ‘सुशासन बाबू’ को बिहार का उद्धव ठाकरे बना देगी ?


कोई भी यह नहीं पूछ रहा है कि बिहार में नीतीश कुमार का कमज़ोर होनाक्या दिल्ली में नरेंद्र मोदी सरकार को 2024 के (या उसके पूर्व भी चुनावों के पहले और ज़्यादा ‘एकाधिकारवादी’ तो नहीं बना देगा ? भाजपा चुनावों के ठीक पहले ‘चिराग़’ लेकर बिहार में क्या ढूँढ रही है ? चिराग़ ने सिर्फ़ नीतीश की पार्टी के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ही अपने लोग खड़े  किए हैंभाजपा के ख़िलाफ़ नहीं। चिराग़ अपने आपको मोदी का ‘हनुमान’ बताते हुए नीतीश को रावण साबित करना चाह रहे हैं और प्रधानमंत्री मौन हैं। चिराग़ की पार्टी भी एनडीए में है और नीतीश की भी।


चुनाव परिणाम आने के बाद अगर नीतीश भाजपा को चुनौती दे देते हैं कि या तो वे (नीतीशएनडीए में रहेंगे या फिर चिराग़ तो मोदी क्या निर्णय लेना चाहेंगे ? प्रधानमंत्री ने जब 23 अक्टूबर को रोहतास ज़िले के सासाराम से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत ही अपने ‘प्रियमित्र’ राम विलास पासवान को श्रद्धांजलि देते हुए कीतब उनके साथ मंच पर बैठे हुए नीतीश कुमार ने कैसा महसूस किया होगाक्या ऐसा होने वाला है कि बिहार में जीत गए तो मोदी के ‘नाम’ के कारण और हार गए तो नीतीश के ‘काम’ के कारण ?


बिहार में राजनीतिक दृष्टि से इस समय जो कुछ भी चल रहा हैवह अद्भुत हैपहले कभी नहीं हुआ होगा ! वह इस मायने में कि भाजपा का घोषित उद्देश्य और अघोषित एजेंडा दोनों ही अलग-अलग दिखाई दें ! घोषित यह कि नीतीश ही हर हाल में मुख्यमंत्री होंगे (‘चाहे हमें ज़्यादा सीटें मिल जाएँ तब भी’- जे.पी.नड्डा )।अघोषित यह कि तेजस्वी के मार्फ़त लालू की हर तरह की वापसी को भी रोकना है और नीतीश पर निर्भरता को भी नियंत्रित करना है। इसमें यह भी शामिल हो सकता है कि भाजपानीतीश की राजनीतिक ज़रूरत बन जाए जो कि अभी उल्टा है।


नीतीश कुमार की तमाम कमज़ोरियोंविफलताओं और मोदी के शब्दों में ही गिनना हो तो ‘अहंकार’ के बावजूद इस समय उनका ( नीतीश काराष्ट्रीय पटल पर एक राजनीतिक ताक़त के रूप में बने रहना ज़रूरी है।अगर अतीत के लालू-पोषित ‘जंगल राज’ के ख़ौफ़ से मतदाताओं को वे मुक्त कर पाएँ तब भी तेजस्वी यादव केवल नीतीश के ‘परिस्थितिजन्य’ अस्थायी बिहारी विकल्प ही बन सकते हैं ‘आवश्यकताजन्य’ राष्ट्रीय विकल्प नहीं। इस समय ज़रूरत एक राष्ट्रीय विकल्प की हैजो कि ममता का उग्रवाद नहीं दे सकता।नीतीश को राजनीतिक संसार में मोदी का एक ग़ैर-भाजपाईग़ैर-कांग्रेसी प्रतिरूप माना जा सकता है।


दस नवम्बर के बाद बिहार में बहुत कुछ बदलने वाला है।इसमें राजनीतिक समीकरणों का उलट-फेर भी शामिल है। गौर किया जा सकता है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा पिछली बार बिहार में अंतिम चरणों के मतदान के ठीक पहले आरक्षण के ख़िलाफ़ व्यक्त किए गए विचारों ने नतीजों को भाजपा के विरुद्ध और नीतीश के पक्ष में प्रभावित कर दिया था।अच्छे से जानते हुए भी कि आरक्षण को लेकर संघ और भाजपा के विचार पिछले चुनाव के बाद से बदले नहीं हैं ,केवल गठबंधनों के समीकरण बदल गए हैं ,नीतीश कुमार ने भाजपा को नाराज  करते हुए अगर आबादी के अनुसार आरक्षण देने का इस समय मुद्दा उठा दिया है तो उन्होंने ऐसा उसके सम्भावित राजनीतिक परिणामों पर विचार करके ही किया होगा।चुनावी नतीजों के बाद हमें उनके राजनीतिक परिणामों की भी प्रतीक्षा करना चाहिए।





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