प्रार्थनाएँ,स्पर्श और आत्माओं में बसी हुई अयोध्या
श्रवण गर्ग
मैं निराकार ईश्वर के साथ साक्षात्कार और अंधकार के उन कठिन क्षणों में उसकी उपस्तिथि के बारे में सोच रहा हूँ जहाँ कोई दीपकऔर रौशनी नहीं होती ।एक ऐसा साम्राज्य जिसका मालिक केवल अंधकार होता है ,जिसकी सीमाओं को न तो देखा जा सकता हैऔर न ही छुआ जा सकता है। अब जो कुछ भी प्रकाश होना है वह कहीं और से नहीं बल्कि अंदर की अनुभूति से या फिर आत्मीय स्पर्श से ही प्राप्त होने वाला है।अंतरमन की तमाम छटपटाहटों और अपने अस्तित्व को लेकर चलने वाले संघर्षों के मार्मिक क्षणों में ऐसा ही होता है। मैं उस अंधेरे से लड़ाई की बात कर रहा हूँ जिसमें घुप्प अंधेरी गुफ़ाओं में भी दीये प्रार्थनाओं के रूप में मन के भीतर जलते रहते हैं ,प्रकाश उत्पन्न होता रहता है और किरणें किसी बोधिवृक्ष के तले बैठे गौतम बुद्ध या शिखरों पर विराजमान श्रीराम के चरणों में पहुँचकर विश्राम करने लगती हैं।
मैं उन अवर्णनीय प्रार्थनाओं के बारे में सोच रहा हूँ जिनका व्यक्त होना काल-काल से प्रतीक्षित है।उन प्रार्थनाओं के बारे में जिन्हें अंधेरों से लड़ने के लिए किसी रौशनी की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती।पूछा जाना चाहिए कि सभी प्रार्थनाओं के दौरान आँखें स्वतः बंद क्यों हो जाती हैं ? एक साकार ईश्वरीय प्रतिमा के सामने होते हुए भी हम क्यों उस सर्वशक्तिमान को केवल बंद आँखों से से ही देखना,सुनना और भाव-विभोर होकर अश्रुपूरित होना चाहते हैं ? मैं ईश्वर की मौजूदगी ,दीयों की रौशनी की अनुपस्तिथि और मानवीय स्पर्शसे ओतप्रोत प्रार्थनाओं से प्राप्त होनेवाले फलार्थ के बारे में सोच रहा हूँ । मैं ग्यारह से सोलह साल की उम्र के उन फ़ुटबाल खिलाड़ियों और उनके पच्चीस वर्षीय कोच के बारे में सोच रहा हूँ जो इसी साल 23 जून (2018) को उत्तरी थाईलैंड की थैम लुआंग गुफा में कोई तीन सप्ताह के लिए क़ैद हो गए थे।दो किलोमीटर लम्बी और आठ सौ मीटर से ज़्यादा गहरी ,घुप्प अंधेरे वाली गुफा जिसमें जगह-जगह पानी भरा हुआ था , अट्ठारह दिनों तक वे सारी दुनिया से पूरी तरह कटे रहे।बाद के तीन दिनों में उन्हें गुफा से बाहर निकला गया।गुफा के भीतर अंधेरे का ऐसा साम्राज्य कि बिना घबराए हुए मज़बूत से मज़बूत व्यक्ति भी बग़ैर किसी चमत्कारिक ताक़त के जीवित नहीं रह सकता।तब वह कौन सी ताक़त रही होगी जो इन बच्चों को अंधेरे से बाहर निकाल लाई ? फ़ुटबाल के खिलाड़ी बच्चे बिना अन्न और आहार के गुफा के अंदर घने अंधेरे में प्रार्थनाओं में लीन थे और बाहर समूचा थाईलैंड और दुनियाभर के करोड़ों लोग अपनी साँसें रोककर प्रार्थनाएँ कर रहे थे ।बाहर प्रार्थना करनेवालों में वे भी शामिल थे जिनका ईश्वर और उसके अस्तित्व में कभी यक़ीन नहीं रहा।मैं बाह्य रौशनी और आंतरिक ईश्वरीय प्रकाश के बीच की दूरी लेकर भी सोच रहा हूँ।
मैं यह भी विचार कर रहा हूँ कि प्रार्थनाओं से ईतर भी ऐसा कुछ रहा होगा जिसने उन थाई बच्चों को उस गहन अंधकार में भी जीवित रहकर संघर्ष करते रहने की ताक़त प्रदान की होगी। क्या वह ताक़त एक-दूसरे की उपस्तिथि को किसी आत्मिक स्पर्श के ज़रिए लगातार महसूस करने का कोई अनसोचा-विचारा उपक्रम था जिसने उन बच्चों को उस ईश्वर से जोड़े रखा जिसे वे प्रार्थनाओं के ज़रिए प्राप्त करना चाहते थे ?
लेटिन अमेरिकी देश ब्राज़ील की महिला अमांडा द’सिल्वा 37 हफ़्ते के गर्भ के दौरान कोमा में चली गई थी।कोमा में जाने के बाद डॉक्टरों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को बचाने की थी।आनन-फ़ानन में अमांडा का सीजेरीयन किया गया और बेटे का जन्म हुआ ।बेटे के जन्म के दो हफ़्ते बीत जाने के बाद भी अमांडा कोमा में ही थी।डाक्टर ,अमांडा और गहन देख-रेख में सम्भाले जा रहे उसके बेटे को लेकर चिंतित थे।तभी एक नर्स ने सुझाव दिया कि बच्चे को अमांडा की छाती पर रख दिया जाए।और जैसे ही यह किया गया, चमत्कार हो गया।अमांडा के दिल की धड़कनें बढ़ गईं। उसने बच्चे को छुआ और रो पड़ी।
मैं सोच रहा था कि चारों ओर जब अंधेरा हो ,अमावस्या एक कभी न ख़त्म होने वाली रात में बदल जाए और दूर-दूर तक कोई टिमटिमाता हुआ दीया भी नहीं दिखाई दे तब क्या करना चाहिए ? क्या उन थाई फ़ुटबाल खिलाड़ी बच्चों की तरह प्रार्थना में खड़े नहीं हो जाना चाहिए और अपनी आत्माओं में विराजमान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या का स्मरण नहीं करना चाहिए? उसअयोध्या का जिसने राम को अपने से कभी दूर जाने दिया ही नहीं था —अंधकार में भी और प्रकाश में भी, प्रार्थनाओं में भी ,स्पर्श में भी ! वह अयोध्या जो बनवास के दौरान भी चौदह वर्षों तक उनके साथ ही बनी रही और उन्हीं के साथ वापस भी लौटी।थाई बच्चों और उनके कोच ने घर वापस लौटने के बाद जो सबसे पहला काम किया वह था बौद्ध मंदिर में जाकर अपनी प्रार्थनाओं से ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित करने का । (दैनिक भास्कर के साप्ताहिक परिशिष्ट ‘रसरंग ‘ में 4 नवम्बर 2018 को प्रकाशित आलेख )
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