जुगनू जहां भी रहे ,उजाला ही फैलाते रहे 


-श्रवण गर्ग 


जुगनू शारदेय को याद करने के लिए सैंतालीस साल पहले के ‘बिहार छात्र आंदोलन’ (1974 )के दौरान पटना में बिताए गए दिनों औरमहीनों में वापस लौटना कोई आसान काम नहीं था। जुगनू के बहाने और भी कई लोगों और घटनाओं का भी स्मरण करना ज़रूरी हो गयाथा।आंदोलन के प्रारम्भिक दिनों में ‘सर्वोदय साप्ताहिक ‘ के लिए दिल्ली से रिपोर्टिंग करने के लिए प्रभाष जोशी जी ने कुछ ही दिनों केलिए पटना भेजा था पर जे पी ने लगभग पूरे साल के लिए वहाँ रोक लिया।पटना में रहते हुए काम करने के लिए जुगनू से मिलना औरदोस्ती करना ज़रूरी था।उसी दौरान डॉ.लोहिया के सहयोगी रहे प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार ओमप्रकाश दीपक जी से भी वहाँ मुलाक़ातऔर मित्रता हो गई।


जुगनू का पहला आलेख दीपक जी द्वारा सम्पादित समाजवादी पार्टी की पत्रिका ‘जन’ में ही 1968 में प्रकाशित हुआ था। दीपक जीदिनमान’ के लिए पटना से आंदोलन पर लिख रहे थे।अतः दोनों के बीच पहले से ही काफ़ी आत्मीय सम्बंध थे। बाद में मैं भी दोनों केसाथ जुड़ गया।पटना में हम तीनों का एक छोटा सा समूह बन गया था। जे पी के कदम कुआँ स्थित निवास के नज़दीक तब दूसरीमंज़िल पर स्थित एक रेस्तराँ हमारी नियमित बैठकों का अड्डा था।दीपक जी बाद में नहीं रहे पर जुगनू से मिलना-जुलना या फ़ोन परबातचीत करना हाल के कुछ सालों तक बना रहा।


जुगनू बिहार की राजनीति और वहाँ की पत्रकारिता के ज्ञानकोश थे।पटना में रहते हुए अपनी किताब ‘बिहार आंदोलनएकसिंहावलोकन ‘ के लेखन के दौरान तथ्यों की पुष्टि के लिए उनसे भी मदद लेना पड़ी थी।बिहार छोड़ने के बाद मैं देश में कई स्थानों पररहा पर जुगनू से सम्पर्क बराबर बना रहा  दिल्लीभोपाल ,इंदौर आदि स्थानों पर तो वे मिलने ले लिए भी आते रहे।मेरे आग्रह परलिखते भी रहे।


सत्तर के दशक के बिहार की राजनीति और पत्रकारिता आज के जमाने से बिलकुल अलग थी।इंडियन नेशन’ और ‘सर्च लाइट’ अंग्रेज़ीके तथा ‘आर्यावर्त’ और ‘प्रदीप’ हिंदी के समाचार पत्र हुआ करते थे।आज के जमाने में कल्पना करना भी कठिन होगा कि लालू यादवसुशील मोदीरामबिलास पासवान , शिवानंद तिवारी आदि तब एक साथ मिलकर काम करते थे। बाबा नागार्जुन और रेणु जी भीआंदोलन के साथ नज़दीक से जुड़े हुए थे।जुगनू एक ऐसी खिड़की थे जिसके ज़रिए बिहार को समग्र रूप से बिना किसी लाग-लपेट केदेखा और समझा जा सकता था।वे एक ऐसा बिहार थे जो देश भर में घूमता रहता था।बिहार के पत्रकार जगत में उनके मित्रों की संख्याकम थी पर देश के बाक़ी हिस्सों में अपार थी।


जुगनू ने जीवन जीने की जिस शैली को अपने साथ जोड़ लिया था वे उससे अपने को अंत तक मुक्त नहीं कर पाए।इस दिशा में उन्होंनेसंकल्पपूर्वक कोशिश भी नहीं की  मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज करवाते रहने के बाद भी नहीं।वे जीवन भर अभावों मेंजीते रहे पर ईमानदारी नहीं छोड़ी।वैचारिक मतभेदों के चलते मित्रों के साथ उनके झगड़े होते रहे पर उन्होंने समझौते नहीं किए।अपनेशारीरिक कष्टों और अभावों का अपनी सीमित शक्ति के साथ मुक़ाबला करते रहे पर किसी से कोई माँग नहीं की।अपने अंतिम दिनों मेंदिल्ली के वृद्धाश्रम में रहते हुए जिन परिस्थितियों में उनका निधन हुआ उनसे उनके कष्टों की पराकाष्ठा की कल्पना की जा सकती है।विनम्र श्रद्धांजलि के साथ दुःख की इस घड़ी में अभी इतना ही।

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