// बहती होगी कहीं तो वह नदी ! //


          -श्रवण गर्ग 


कहीं तो रहती होगी वह नदी !

बह रही होगी चुपचाप

छा जाते होंगे ओस भरे बादल

जिसकी कोमल त्वचाओं पर

आते होंगे पक्षीलांघते हुए

देससमुद्र और पहाड़ हज़ार 

चुगने बूँदें उसकी मोतियों वाली !


कहीं तो बहती होगी वह नदी !

खोजी नहीं जा सकी है जो अभी 

डूबी भी नहीं है जो पानी में !

पर लगता है डर यह भी बहुत 

बच नहीं पाएगी अब वह नदी 

बहती हुई चुपचाप इसी तरह 

कर रहा है तलाश उसकी 

खारे पानी का समुद्र 

भांजते हुए नंगी तलवारें अपनी 

निगल जाने के लिए उसे !


बचाए रखना होगा नदी को 

जन्मी हैं सभ्यताएँ सारी 

झूली हैं पालना 

सुरम्य घाटियों में उसकी !

समुद्र तो ले जाता है 

सभ्यताओं को परदेस 

करता है आमंत्रित 

लुटेरों को 

करने के लिए राजव्यापार

बनाने के लिए बंदी 

ज़ुबानोंआत्माओं को !


रखना होगी नज़र अब रात-दिन 

नहीं कर पाए उपवास 

एक भी बूँद नदी की 

सूख जाए नहीं चिंता में वह 

निगल लिए जाने के डर से !


बोलना ही पड़ेगा कभी तो 

पक्ष में उसके 

बह रहा है जो नदियों की तरह 

नहीं रह सकते हैं चुपचाप सभी 

किनारों पर खड़े 

बड़े-बड़े पहाड़ों की तरह !




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