इस दौरान : श्रवण गर्ग की एक नई कविता
‘नहीं जाना है लौटकर कहीं !’
-श्रवण गर्ग
नहीं जाना है लौटकर कहीं कभी
नहीं छोड़कर आए हैं कोई मकान या मचान
खड़े हैं ज़मीन के जिस टुकड़े पर इस वक्त
है बस घर वही अगले किसी पड़ाव तक
कहा गया था बस इतना कि चलते जाना है !
देख रहे हो सूजे हुए पैर ! नहीं हैं हमारे अपने
थम जाते हैं एक आवाज़ पर ये
चलने लगते हैं दूसरी किसी आवाज़ पर
छूट गया था देना खून पहली आज़ादी में
माँगा जा रहा है अब किसी दूसरी के लिए
होता है सिर्फ़ मुल्क ही आज़ाद
एक बार की लड़ाई में
होना पड़ता है नागरिकों को आज़ाद
हर हुकूमत में बार-बार !
है खून अभी काफ़ी बाक़ी बदन में हमारे
डाक्टर सरकारी है,सच ही बोलता होगा
कहता है होगी बदनामी मुल्क की
सच बोल देने से हमारे
देश नहीं डरता हमसे
है ज़रूरी डरते रहना हमारा देश से !
देख रहे हो दूर तक जाती लंबी सड़क
बनाई थी पुरखों ने हमारे कभी
वक्त की मार से पड़ी दरारें इसमें
उनके ही शरीर और आत्माएँ हैं
अपने हर जन्म और पुनर्जन्म में
चलते हैं सड़कों को लिए साथ-साथ !
निकलने वाली है अब एक ट्रेन क़रीब से
सड़क जितनी ही लंबी
सो जाना है हमें पहुँचने से पहले उसके
थक चुके हैं पैर चलते हुए सदियों से
नहीं तोड़ती नींद या करती परेशान
ट्रेन की चीखती हुई आवाज़ें भी
एक इंजिन है हमारे भीतर भी कहीं
दौड़ता रहता है लगातार
सुन्न पड़ती रगों में हमारी !
हो गया है वक्त ट्रेन के आने का,
सो जाना चाहिए हमें गहरी नींद में
नहीं कर रहा किसी घर में कोई प्रतीक्षा
पूरा घर है साथ निकलने अगली यात्रा पर
है ज़रूरी उठना सुबह होने के पहले
नहीं पता आँख खुलेगी भी कि नहीं !
कैसे मिलेगी फिर दूसरी आज़ादी
रह गए सोते हुए ही हम अगर ?
Comments
Post a Comment