बदल गईं हैं औरतें !

 

-श्रवण गर्ग


कर दिया घूँघट के भीतर से ही मना

औरतों ने हाथ के इशारों से 

नहीं जाएँगी बुलावे पर रोने के लिए

और करने लगीं ठिठौली 

बतियाने लगीं आपस में 

गाँव के बाहर बनाए गए 

जात के कुएँ की मुँडेर के पास !


कुछ बुनने लगीं अपनी कथाएँ 

कि बढ़ गए हैं अपने ही रोने बहुत 

कहाँ-कहाँ जाएँ रोने नक़ली रोना 

पीटने छातियां ज़ोर-ज़ोर से 

फेफड़े भी हो गए हैं कमज़ोर 

कूट-कूटकर धान ज़मींदार का !


जान गईं थीं औरतें अच्छे से 

हो गया है वक़्त यात्रा के आने का 

बुलाया गया था जहां रोने के लिए 

गूंजने लगा था शोर कानों में 

शहर से लाए गए बैंड-बाजों का 

पर चलती रही औरतें बतियाती हुईं 

बीच रास्ते मेंघेरकर पूरी सड़क !


बदल गई हैं औरतें गाँव की 

रोना नहीं चाहती हैं अब कोई

कहतीं हैं बड़ी संजीदगी के साथ 

खुश होने का हो काम तो बताइए !




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