‘क्यों जाना चाहते हो यात्रा पर तुम फिर भी .….?’


-श्रवण गर्ग 


जिस रेगिस्तान की तलाश है तुम्हें 

तुम्हारे भीतर ही बसा है !

मैं जानता हूँ 

जाओगे फिर भी तलाश करने उसकी 

भोगने चिलचिलाती धूप में उसे 

नंगे पैरों से, नंगी आँखों से !


पार करोगे जैसे ही देहरी घर की तुम 

छूटेगा सबसे पहले वह पहाड़ 

खेलते रहे हो गोद में जिसकी जीवन भर !

फिर करेगी पीछा तुम्हारा नदी !

छोड़ने जाएगी तुम्हें 

आंसुओं की नाव लेकर 

गाँव की सरहद तक !


घेर लेंगे फिर तुम्हें बड़े-घने जंगल

हर दिशा से 

चीरते हुए पसलियाँ तुम्हारी

टकराने लगेंगे आकाश छूते पेड़ आपस में 

देखकर तुमको अकेला !

भभकने लगेगी आग चारों तरफ़ 

तपने लगेगा जंगल तुम्हारी आत्मा का 

याद आएगी तब नदी बहुत 

छूटा हुआ पहाड़,घर की देहरी के पार !


जीना चाह रहे हो जो रेगिस्तान अपने में 

समाया हुआ है भीतर ही तुम्हारे 

पसरा हुआ है नदी के दोनों पाटों पर 

क्यों जाना चाहते हो फिर भी यात्रा पर !

छोड़कर पहाड़ को यूँ अकेला ?


पूछना तो तुम्हारा भी सही ही होगा :

‘कैसे खोजे गये होंगे रेगिस्तान 

नहीं जाते लोग अगर 

करके सूनी गोदें पहाड़ों की 

आँचल नदियों के ?’

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