मोदीजी शतायु हों ! जब भी ‘रिटायर’ हों ऐसे ही जन-प्रिय बने रहें !


-श्रवण गर्ग 


अपने पचहत्तरवें जन्मदिन या ‘हीरक जयंती’ को एक उचित अवसर मानते हुए मोदीजी अगर अचानक से घोषणा करदें या कोई संकेत भर भी छोड़ दें कि वे रिटायरमेंट लेने जा रहे हैं तो देश में हड़कंप मच जाएगा ! उस पूरे सिस्टम की बुनियादें डोलने लगेंगी जिसे उन्होंने अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के खाद-पानी से पोषित किया है।पूरी अर्थव्यवस्थास्टॉक मार्केट,उच्च आधिकारिक पदों और संस्थानों पर क़ाबिज़ सत्ताओंरीढ़-विहीन मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व वाले राज्यों की हुकूमतें सब ऐसे हिलने लगेंगी जैसे किसी विनाशकारी भूकंप या सुनामी की चेतावनी जारी कर दी गई हो ! पूरी व्यवस्था पागल हो जाएगी ! हो सकता है मोदी को ऐसा करने से रोकने के लिये कुछ अंध-भक्त आत्मदाह तक करने की धमकियाँ देने लगें !


मोदी ने किसी ताकतवर इवेंट मैनेजमेंट की मदद से अपने आपको जनता के बीच एक आदतरोज़ाना की बहस के विषय और नशे में परिवर्तित कर दिया है।यह पता लगाने के लिए कि देश की कितने प्रतिशत जनता पर मोदी और संघ का प्रभाव है मोहन भागवत को अपने हज़ार-दो हज़ार अति-विश्वस्त स्वयंसेवकों के मार्फ़त कोई गुप्त सर्वे जनता के बीच इस तरह की अफ़वाह फैलाकर करवा लेना चाहिए कि मोदीजी रिटायरमेंट ले रहे हैं ! 


जनता की ओर से पहली प्रतिक्रिया खबर को ‘फेक न्यूज़’ घोषित करने की होगी। दूसरी इस सवाल की होगी कि मोदीजी  ऐसा कैसे कर सकते हैं ? तीसरी यह कि उनके ख़िलाफ़ कौन षड्यंत्र कर रहा है ? अंतिम यह कि मोदीजी फिर क्या करेंगे ? कहाँ जाएँगे ? उनकी जगह कौन पीएम बनेगा ! यह बताया जाए कि अमित शाह बनेंगे तो क्या स्वीकार कर लेंगे ? आदि, आदि ! एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है जो यह कहने का साहस जुटा ले कि अपनी विफलताओं को छुपाते हुए परास्त दिखने के बजाय उम्र की आड़ में पद छोड़ देना उनके लिए सबसे बुद्धिमानी का काम होगा ! 


इंदिरा गांधी ने जब 1977 में ‘आपातकाल’ हटाने की अचानक से घोषणा कर दी थी तो समूचा विपक्ष,जो उस समय लंबी तैयारी के साथ या तो जेलों में क़ैद या नज़रबंद थाऔर देश की जनता सकते में  गई थी कि ऐसा कैसे हो गया ? इंदिरा जी अपने ही द्वारा घोषित ‘आपातकाल’ से डर गईं थीं और चुनाव लड़कर सत्ता में वापस आने का साहस दिखाना चाहती थीं। हर कोई जानता है मोदीजी में इंदिरा गांधी की तरह देश को आश्चर्यचकित करने का साहस नहीं है। यह भी हो सकता है कि अपनी तीसरी पारी में वे चुनावों के ज़रिए सत्ता में वापसी के प्रति इंदिरा गांधी की तरह आश्वस्त नहीं हों !


पिछले एक दशक के दौरान मोदीजी का देश को सबसे बड़ा ‘योगदान’ यही रहा है कि उन्होंने आबादी के एक बड़े धड़े के बीच अपनी छवि को बिना किसी सैन्य मदद के भी तम्बाखू के गुटके या पान के चूने की तरह उसकी दैनन्दिन की ज़रूरतों का अनिवार्य हिस्सा बनवा दिया है। दुनिया के किसी भी अन्य लोकतांत्रिक देश में ऐसा ‘अभिनव प्रयोग’ शायद ही नज़र आए। 


वक्त जैसे-जैसे बीतता जा रहा है दुनिया के श्रेष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों,मनोवैज्ञानिकों और राजनेताओं के लिए यह समझ पाना कठिन होता जा रहा है कि असली मोदी आख़िर क्या हैं ? ब्रिटेन की लेबर पार्टी के एक नेता और लेखक-पत्रकार एंड्रयू एडोनिस ने चार साल पहले जो सवाल किया था वह आज और जटिल हो गया है कि मोदी किस देश का नेतृत्व कर रहे हैं ? भारत का या हिंदू भारत का ? वे भारत में प्रजातंत्र की रक्षा कर रहे हैं या उसे नष्ट कर रहे हैं ? वे एक सच्चे आर्थिक आधुनिक व्यक्ति हैं या एक ऐसे कट्टर और धार्मिक राष्ट्रवादी जिसके लिए आधुनिकीकरण एक ऐसा हथियार है जिसका उपयोग सत्ता पर धाक जमाने और सांप्रदायिक फ़ायदों के लिए प्रस्तावित सुधारों में तोड़फोड़ करके किया जा सके ?


उक्त सवाल और ऐसे ही सैंकड़ों नए सवालों को फ़िलहाल मोदीजी के इस पचहत्तरवें और अगले जन्मदिन के बीच होने वाले घटनाक्रमों के लिए स्थगित कर देना चाहिये और उनके शतायु होने की प्रार्थनाएँ इन आशाओं के साथ करना चाहिए कि देश के जीवन में कोई दिन तो ऐसा आएगा जब नागरिक उन्हें अपने बीच एक नोन-बायोलॉजिकल पूर्व प्रधानमंत्री के रूप में भी प्राप्त कर सकेंगे !

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